लीची के फल अपने आकर्षक रंग, स्वाद और गुणवत्ता के कारण भारत में भी नही बल्कि विश्व में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है। लीची उत्पादन में भारत का विश्व में चीन, ताइवान के बाद तीसरा स्थान है। वर्ष 2020 से 21 के आंकड़े के अनुसार भारत में 98 हजार हेक्टेयर में लीची की खेती हो रही है, जिससे कुल 7206 हजार मैट्रिक टन उत्पादन होता है,
जबकि बिहार में लीची की खेती 32 हजार हेक्टेयर में होती है जिससे 300 मैट्रिक टन लीची का फल प्राप्त होता है। बिहार में लीची की उत्पादकता 8टन/हेक्टेयर है जबकि राष्ट्रीय उत्पादकता 7.4 टन /हेक्टेयर है। संभावित उत्पादकता 14 से 15 टन/ हेक्टेयर के बीच व्यापक अंतर मौजूद है।
लीची भारत के उत्तरी बिहार, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड में देहरादून एवं पिथौरागढ़, असम और झारखंड में राँची एवं पूर्वी सिंहभूम में इसकी खेती होती है। बिहार कुल लीची का 40% उत्पादन करता है और भारत में लगभग 38% क्षेत्र पर कब्जा करता है। हमारे देश में लीची के फल 10 मई से लेकर जुलाई के अंत तक मिलते हैं एवं उपलब्ध रहते है।
सबसे पहले लीची त्रिपुरा में पक कर तैयार होते है। इसके बाद क्रमश: राँची एवं पूर्वी सिंहभूम (झारखंड), मुर्शीदाबाद (पं. बंगाल), मुजफ्फरपुर एवं समस्तीपुर (बिहार), उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, पंजाब, उत्तरांचल के देहरादून एवं पिथौरागढ़ की घाटी में फल पक कर तैयार होते है। बिहार की लीची अपनी गुणवत्ता के लिए देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी प्रसिद्ध हैं।
लीची के फल पोषक तत्वों से भरपूर एवं स्फूर्तिदायक होते है। इसके फल में शर्करा 11%, प्रोटीन 0.7%, वसा 0.3%, एवं अनेक विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। लीची के फल मुख्यत: ताजे रूप में ही खाए जाते हैं। बिहार की प्रमुख लीची की प्रजाति शाही की तुड़ाई लगभग समाप्त हो चुकी है, चाइना प्रजाति के लीची की तुड़ाई चल रही है।
इस समय आवश्यकता इस बात की है की लीची उत्पादक किसान इस समय क्या करे की उन्हें अगले साल भी अच्छी उपज प्राप्त हो। अगले साल अच्छी उपज प्राप्त हो इसके लिए जो दो प्रमुख कारक है वह है पेड़ की कटाई-छटाई एवं पेड़ की उम्र के अनुसार खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग।
फल देने वाले लीची के पेड़ की कटाई छटाई
जैसा कि हम सब जानते है की लीची में फल पेड़ के बाहरी हिस्सों में ही लगते, जिस पेड़ की आकृति छाते जैसी होती है उसमे अधिकतम फल लगते है। इसलिए कटाई छटाई करके पेड़ की आकृति छाते जैसा बनना चाहिए। लीची के फलों की तुड़ाई के बाद उसमें नये नए कल्ले निकलते हैं जिन पर जनवरी-फरवरी में मंजर और फूल आते हैं।
यदि फलों की तुड़ाई करते समय किसी तेज धारदार औजार से गुच्छे के साथ-साथ 15 से 20 सें.मी. टहनियों को भी काट दिया जाय तो उन्ही डालियों से जुलाई-अगस्त में औजपूर्ण एवं स्वस्थ कल्लों का विकास होता है।
जिस पर फलन अच्छी होती है।इसके अतिरिक्त लीची के पौधों के अंदर की पतली, सूखी तथा न फल देने वाली शाखाओं को उनके निकलने के स्थान से काट देने से अन्य शाखाओं में कीड़ों एवं बीमारियों का प्रकोप कम हो जाता है।
कटाई के बाद शाखाओं के कटे भाग पर कॉपर-ऑक्सीक्लोराइड लेप लगा देने से किसी भी प्रकार के संक्रमण की समस्या नहीं रहती है। काट-छांट के पश्चात पौधों की समुचित देखरेख, खाद एवं उर्वरक प्रयोग तथा पौधों के नीचे गुड़ाई करने से पौधों में अच्छे कल्लों का विकास होता है तथा उपज भी बढ़ती है।
छोटे पौधों में काट-छांट
लीची के नवजात पौधों में कांट-छांट का मुख्य उद्देश्य ढांचा निर्माण होता है। जिससे पौधे लम्बे समय तक सतत रूप से फल दे सकें। प्रारम्भ के 3 से 4 वर्षो तक पौधों के मुख्य तने की अवांछित शाखाओं को निकाल देने से मुख्य तनों का अच्छा विकास होता है और अंतरशस्यन में भी आसानी रहती है।
जमीन से लगभग 1 मी. ऊँचाई पर चारों दिशाओं में 3 से 4 मुख्य शाखाएं रखने से पौधों का ढांचा मजबूत एवं फलन अच्छी होती है। समय-समय पर कैंची व सीधा ऊपर की ओर बढ़ने वाली शाखाओं को काटते रहना चाहिए।
PC : डॉ. एसके सिंह प्रोफेसर सह मुख्य वैज्ञानिक(प्लांट पैथोलॉजी) एसोसिएट डायरेक्टर रीसर्च डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर बिहार
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