गाजर घास बहुत ही खतरनाक एक खरपतवार है। यह बहुत तेजी से फैलता है। इसकी उत्पत्ति उष्णकटिबंधीय है। ऐसा माना जाता है कि वर्ष 1955 में जब कांग्रेस सरकार द्वारा अमेरिका और कनाडा से गेहूं आयात किया गया था तो उसी के साथ यह भारत आया था। यही वजह है कि इसे कांग्रेस घास भी कहा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम पारथेनियम हिस्टेरोफोरस है। सामान्यतः इसे कांग्रेस घास, गाजर घास, सफेद टोपी, चटख चांदनी, गंधी बूटी, पंधारी, गजरी आदि नामों से जाना जाता है।
यह घास मुख्यत: खेत खलिहानों, खुले स्थानों, औद्योगिक क्षेत्रों, सड़कों व नाली के किनारे, नहरों के किनारे व जंगलों में बहुत ज्यादा संख्या में पाया जाता हैं। दुनिया में गाजर घास भारत के अलावा अमेरिका, मैक्सिको, वेस्टइंडीज, भारत, नेपाल, चीन, वियतनाम तथा आस्ट्रेलिया के विभिन्न भागों में भी फैला हुआ है। यह एक वर्षीय शाकीय पौधा होता है। रेगिस्तान के अलावा यह कहीं भी आसानी से फैल सकता हैं।
गंदी जगह इसे विशेष रूप से पसंद हैं। इस पौधे की लम्बाई 1.0 से 1.5 मीटर तक हो सकती हैं। इसकी पत्तियां गाजर या गुलदाउदी की पत्तियों की तरह होती हैं। जिन पर रोएं लगे होते हैं। ये पौधे सालों भर उगते हैं। फूल सफेद रंग के छोटे-छोटे तथा शाखाओं के शीर्ष पर लगते हैं। फूल और बीज पौधों पर हर मौसम में आते हैं। प्रत्येक पौधा पांच हजार से पच्चीस हजार की संख्या में बीज प्रतिवर्ष पैदा कर सकता है।
इसमें ऐस्क्युटरपिन लेक्टोन नामक विषाक्त पदार्थ पाया जाता हैं, जो फसलों की अंकुरण क्षमता एवं विकास पर विपरीत असर डालता है। इसके परागकण पर-परागित फसलों की परागण प्रक्रिया को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं जिसके कारण बीजों का निर्माण नहीं हो पाता है। यह दालों में नाईट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं की क्रियाशीलता को भी कम करता हैं।
गाजर घास के संपर्क में आने पर मनुष्य में चर्म रोग हो जाते हैं। गर्दन, चेहरे और बांहों की चमड़ी सख्त होकर फट जाती है और उसमें घाव भी बन जाते हैं। इससे खाज-खुजली भी पैदा होती है। इसके फूल, बीज और पौधे पर मौजूद रोओं से एलर्जी, दमा और हेफीवर जैसी बीमारियां पैदा होती हैं। यह मनुष्य के नर्वस सिस्टम को प्रभावित कर उसे डिप्रेशन का शिकार भी बना सकता है। इसको खाने से पशुओं (गाय, भैंसों) में अनेक रोग उत्पन हो सकते हैं, पशुओं के थनों में सूजन आ जाती हैं, अल्सर और मृत्यु तक हो जाती हैं।
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