बैंगन की फसल में नए निकले हुए लार्वा पत्तियों को तेजी से खाते हैं, जिसके कारण पत्तियों के ऊतक छिल जाते हैं और वे पूरी तरह झड़ जाती हैं। बड़े होने पर लार्वा फैल जाते हैं और रात में पत्तियों को लगातार खाते हैं। दिन में वे आम तौर पर पौधे के आधार के समीप की मिट्टी में छिप जाते हैं। हल्की मिट्टी में, लार्वा मूंगफली की फलियों तक पहुंच सकते हैं और उन्हें नष्ट कर देते हैं। अधिक खाए जाने के कारण, सिर्फ डंठल और शाखाएं ही शेष रहती हैं।
यह रोग इन फसलों में भी हो सकता हैं और इनमें भी पाया जाता है जैसे: सेब, अंगूर, सेम, शिमला मिर्च एवं मिर्च, खीरा, टमाटर, आलू, बंधगीभी, उड़द और मूंग, अरहर और तुअर दाल, काबुली चना, कपास, गेहूं, सोयाबीन, प्याज, लहसुन, धान, बाजरा, ज्वार, मक्का, स्ट्रॉबेरी, केला, शकरकंद, भिंडी, मुंगफली, आम, कसावा, कॉफी, गुलाब, चुकंदर, अनार, फूलगोभी, अमरूद, हल्दी, अदरक, करेला, सूरजमुखी, तंबाकू।
वयस्क किट का शरीर भूरा-कत्थई तथा सामने के पंख बहुरंगी होते हैं, जिनके किनारों पर सफेद लहर जैसे चिन्ह होते हैं। पिछले पंख पारदर्शी सफेद होते हैं, जिनके किनारों और शिराओं के साथ भूरी रेखाएं होती हैं। मादाएं पत्तियों की ऊपरी सतह पर गुच्छों में सैकड़ों अंडे देती हैं, जो सुनहरे कत्थई रंग की परत से ढके होते हैं। इन अंडो के फूटने के बाद, बिना बालों वाले हल्के हरे रंग के लार्वा तेजी से फैल जाते हैं और तेजी से पत्तियों को खाने लगते हैं। बड़े लार्वा गहरे हरे से कत्थई रंग के होते हैं।
जिनमें किनारे की ओर गहरे धब्बे होते हैं और जिनका पेट कुछ साफ होता है। किनारों में दो पीली लंबी पत्तियां होती है, जिनके मध्य में त्रिभुजाकार काले धब्बे होते हैं। इन धब्बों के मध्य एक नारंगी पट्टी होती है। लार्वा रात में खाते हैं और दिन में मिट्टी में शरण लेते हैं। लार्वा 15 से 35 डिग्री सेल्सियस के बीच पनपते हैं और 25 डिग्री सेल्सियस इनके लिए सबसे अनुकूल होता हैं। कम नमी और उच्च या निम्न तापमान इनकी प्रजनन क्षमता को कम करती है और जीवन चक्र को बढ़ाती हैं।
हमारा सुझाव ये हैं कि किसी भी बीमारी के प्रारंभिक चरणों में या फसल कटाई के समय लगभग यह रोग होने पर, जैविक नियंत्रण का इस्तेमाल किया जाए तो बेहतर हैं। लेकिन रोग के अधिक उन्नत चरणों में कृपया आप रासायनिक नियंत्रण का इस्तेमाल करे ना की जैविक नियंत्रण का। ध्यान रहे एक ही समय में विभिन्न उत्पादों को मिलाने या लगाने की सलाह नहीं दी जाती हैं।
जी-डर्मा यानी ट्राईकोडर्मा किलोनिस, टेलेनोमास रिसम या एपेंटेलास इफ्रीकेनस प्रजाति के परजीवी किट इन अंडो या लार्वा पर पलते हैं। न्यूक्लियर पोलिहेड्रोसिस वायरस (एन.पी.वी) या बेसिलस थुरिंजीयेनसिस पर आधारित जैव कीटनाशक भी उपयोगी होते हैं। इनके अतिरिक्त, कीटों पर परजीवी कवक नोम्युरिया रिले तथा सेराशिया मार्केसेन्स को भी पत्तियों पर छिड़का जा सकता हैं।
चावल की भूसी, गुड या भूरी चीनी पर आधारित चरणों को भी शाम के समय मिट्टी पर डाला जा सकता हैं। नीम की पत्तियों या बीज का तेल तथा पोंगामिया ग्लाब्रा के बीजों का अर्क भी मुंस्पोडोप्टेरा लिटुरा लार्वा पर विशेष प्रभावी होते हैं। जैसे अंडो के चरण के दौरान 5 मिली/ली के हिसाब से अजैडीरेक्टिन 1500 पीपीएम या NSKE 5 प्रतिशत का इस्तेमाल करने से अंडो को फूटने से रोका जा सकता हैं।
हमेशा समवेत उपायों का प्रयोग करना चाहिए। जिसमें रोकथाम के उपायों के साथ जैविक उपचार, यदि उपलब्ध हो, का उपयोग किया जाए। कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग कीटों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर सकता हैं। छोटे लार्वा को रोकने के लिए क्लोरपायरिफोस 2.5 मिली/ली, इमामेक्टिन 0.5 ग्राम/ली, फ्लूबेंडीयामाइड 0.5 मिली/ली या क्लोरेंट्रनीलीप्रोल 0.3 मिली/ली के साथ इंदोक्सीकार्ब और बाईफेंथरीन पर आधारित उत्पादों सही अनेक प्रकार के कीटनाशकों का उपयोग किया जा सकता हैं। इन कीटों को आकर्षित करने वाले प्रलोभक घोल भी आबादी कम करने में मदद करते हैं, जैसे जहरीला चारा, 5 किलो चावल की भूसी, आधा किलो गुड़ और 500 मिली क्लोरपायरिफोस।
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