लीची के फल बिहार का प्रमुख फल है। इसे प्राइड ऑफ बिहार भी कहते है। यह फलों की रानी है। इसमें बीमारियां बहुत कम लगती हैं। लीची की सफल खेती के लिए आवश्यक है की इसमें लगने वाले प्रमुख कीटों के बारे में जाना जाय, क्योंकि इसमें लगने वाले कीटों कि लिस्ट लंबी है, बिना इन कीटों के सफल प्रबंधन के लीची की खेती संभव नहीं है।
लीची माइट अति सूक्ष्मदर्शी मकड़ी प्रजाति का कीट है, जिसके नवजात और वयस्क दोनों ही कोमल पत्तियों की निचली सतह, टहनियों तथा पुष्पवृन्तों से लिपटकर लगातार रस चूसते रहते हैं,
जिससे पत्तियाँ मोटी एवं लम्बी होकर मुड़ जाती है और उनपर मखमली (भेल्वेटी) रुआं सा निकल जाता है जो बाद में भूरे या काले रंग में परिवर्तित हो जाता है तथा पत्ती में गड्ढे बन जाते है।
पत्तियाँ परिपक्व होने से पहले ही गिरने लगती हैं, पौधे बहुत ही कमजोर हो जाते हैं और शाखावो में फल बहुत कम लगते है। इस कीट की रोकथाम के लिए नवजात पत्तियों के निकलने से पहले एवं फल की कटाई के बाद संक्रमित टहनियों को काट कर हटा देना चाहिए।
जुलाई महीने में 15 दिनों के अंतराल पर क्लोरफेनपीर 10 ईसी (3 मिलीलीटर / लीटर) या प्रोपारगिट 57 ईसी (3 मिलीलीटर प्रति लीटर) के दो छिड़काव करना चाहिए।
अक्टूबर महीने में नए संक्रमित टहनियों की कटनी छंटनी करके क्लोरफेनपीर 10 ईसी (3 मिलीलीटर / लीटर) या प्रोपारगिट 57 ईसी (3 मिलीलीटर / लीटर) का छिड़काव करने से लीची माईट की उग्रता में भारी कमी आती है।
इस कीट के कैटरपिलर (पिल्लू) लीची की नई कोपलों के मुलायम टहनियों से प्रवेश कर उनके भीतरी भाग को खाते हैं, इससे टहनियां सूख जाती हैं और पौधों की बढ़वार रुक जाती है। इस कीट के प्रबंधन के लिए इस कीट से आक्रांत टहनीयो को तोड़कर जला देना चाहिए
एवं सायपरमेथ्रिन की 1.0 मि.ली. दवा प्रति लीटर की दर से पानी में घोलकर नवजात पत्तियों के आने के समय 7 दिनों के अंतराल पर दो छिड़काव करने से इस कीट की उग्रता में कमी आती है।
लीची के फल में यह कीट बिहार में मार्च-अप्रैल एवं जुलाई-अगस्त के महीने में लीची बग का प्रकोप ज्यादा देखा जाता है। इसके नवजात और वयस्क दोनों ही नरम टहनियों, पत्तियों एवं फलों से रस चूसकर उन्हें कमजोर कर देते हैं व फलों की बढ़वार रुक जाती है। वृक्ष के पास जाने पर एक विशेष प्रकार की दुर्गंध से इस कीड़े के प्रकोप का पता आसानी से लगाया जा सकता है।
इससे बचाव के लिए नवजात कीड़ों के दिखाई देते ही फ़ॉस्फामिडान नामक कीटनाशक की 1.5 मि.ली. दवा प्रति लीटर की दर से पानी में घोलकर दो छिड़काव 10 से 15 दिनों के अंतराल पर करें।
इस कीट के कैटरपिलर (पिल्लू ) बड़े आकार के होते है जो पेड़ों के छिलके खाकर जिन्दा रहते हैं एवं छिलकों के पीछे छिपकर रहते हैं। तनों में छेद अपने बचाव के लिए टहनियों के ऊपर अपनी विष्टा की सहायता से जाला बनाते हैं।
इनके प्रकोप से टहनियां कमजोर हो जाती हैं और टूटकर गिर जाती है। इस कीट के प्रबंधन के लिए छाल खाने वाले कैटरपिलर के प्रति अतिसंवेदनशील लीची के पौधों की किस्मों को उगाने से बचें। कीट से प्रभावित शाखाओं को इकट्ठा करके जला दें।
छेद में लोहे के तार डालकर कैटरपिलर को मारें। प्रभावित हिस्से को पेट्रोल या मिट्टी के तेल में भिगोए हुए रुई के फाहे से साफ करें। सितंबर-अक्टूबर के दौरान एक सिरिंज का उपयोग करके छिद्र में 5 मिलीलीटर डाइक्लोरवोस इंजेक्ट करें और छेद को मिट्टी से बंद करें।
कार्बोफुरन 3 जी ग्रेन्यूल्स को 5 ग्राम प्रति छिद्र पर रखें और फिर इसे मिट्टी से सील कर दें। मोनोक्रोटोफॉस के साथ पैड 10 मिली / पेड़ या ट्रंक को कार्बेरिल 50 डब्ल्यूपी के साथ 20 ग्राम / लीटर पर स्वाब करें। जब अंडे से अंडे निकल रहे हों और कैटरपिलर छोटे हों तो नियंत्रण पौधे के लिए फायदेमंद साबित होगा। इन कीड़ों से बचाव के लिए बगीचे को साफ़ रखना श्रेयस्कर पाया गया है।
PC : डॉ. एसके सिंह प्रोफेसर सह मुख्य वैज्ञानिक(प्लांट पैथोलॉजी) एसोसिएट डायरेक्टर रीसर्च डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर बिहार
यह भी पढ़े : लीची के नए बाग लगाते समय ध्यान रखने योग्य प्रमुख बातें, जानिए विस्तार से।
जागरूक रहिए व नुकसान से बचिए और अन्य लोगों के जागरूकता के लिए साझा करें एवं कृषि जागृति, स्वास्थ्य सामग्री, सरकारी योजनाएं, कृषि तकनीक, व्यवसायिक एवं जैविक खेती संबंधित जानकारियां प्राप्त करने के लिए जुड़े रहे कृषि जागृति चलो गांव की ओर से। धन्यवाद