कोठिया केला, बिहार का यह प्रसिद्ध केला है, जिसका नाम समस्तीपुर जिले के ताजपुर के पास के एक गाँव कोठिया के नाम पर पड़ा है। इस केला की सबसे बड़ी खासियत यह है की इस केले की प्रजाति से बिना किसी खास देखभाल यानी बिना पानी या कम से कम पानी एवं बिना खाद एवं उर्वरकों के भी 20 से 25 किग्रा का घौद प्राप्त किया जा सकता है।
जिसमे 12 से 14 हथ्थे होते है एवं केला की सख्या 100 से 120 तक होती है। इतने देखभाल में दुसरे प्रजाति के केले में घौद आभासी तने से बाहर ही नहीं निकलेगा। यदि इस केले की वैज्ञानिक तरीके से खेती की जाय तो 40 से 45 किग्रा का घौद प्राप्त किया जा सकता है, जिसमे 17 से 18 हथ्थे होते है एवं केला की सख्या 200 से 250 तक हो सकती है।
अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना के अंतर्गत इस प्रजाति के केले पर प्रयोग करके देखा गया की हर प्रदेश में जहा भी इसे टेस्ट किया गया बहुत ही कम लागत यानी इनपुट में हर जगह बहुत ही अच्छा प्रदर्शन किया तथा हर जगह अच्छी उपज प्राप्त किया गया। आज यह केला देश के अन्य केला उत्पादक राज्यों में इसकी खेती खूब हो रही है।
कोठिया केला, ब्लूगो (Blugoe) समूह के केले जैसा होता है, जिसे सब्जी के रूप में तथा पका कर दोनों तरीके से खाते है। ब्लूगो समूह के केलों की खासियत होती है की ये अपने उत्कृष्ट स्वाद, उच्च उत्पादकता, सूखे के प्रतिरोध, केले की विभिन्न प्रमुख बीमारिया जैसे फुजेरियम विल्ट (पनामा विल्ट) और सिगाटोका रोगों के प्रति केला की अन्य प्रजातियों की तुलना में रोगरोधी होती है
और खराब मिट्टी में भी अच्छे प्रदर्शन के कारण कई देशों में उगाये जाते है।इनका जीनोमिक संरचना ABB की होती है। उत्तर बिहार में सडकों के दोनों तरफ जो केला लगा हुआ दिखाई देता है उसमे से अधिकांश केला कोठिया ही होता है क्योकि ईतने ख़राब रखरखाव के वावजूद केला का घौद का निकलना , यह खासियत केवल एवं केवल कोठिया केले में ही है।
बिहार का प्रमुख पर्व छठ या अन्य पर्व में हरिछाल वाले केलों का प्रयोग नहीं होता है, आम मान्यता है की ये केले अशुद्ध होते है, जबकि इसके विपरीत कोठिया केला का उपयोग पर्व में किया जाता है। कोठिया केला का आभासी तना (स्यूडोस्टेम) 46.0 से 50.0 सेंटीमीटर की परिधि के साथ 4.0 से 5.0 मीटर ऊंचा, आभासी तने का रस चमकदार हल्के हरे रंग का पानी जैसा होता है।
कोठिया प्रजाति के केले में पत्ती का डंठल (पेटियोल) हरा, 50 से 60 सेंटीमीटर लम्बा, आधार पर छोटे भूरे-काले धब्बों के साथ और पत्ती का डंठल का कैनाल जिसमें मार्जिन अंदर की ओर मुड़ा हुआ होता है। पत्ती 220 सेमी लम्बा एवं 57 सेमी चौड़ा, मध्यम मोमी, मध्यशिरा हरा, पत्ती का आधार गोल, चमकदार हरा ऊपरी और निचला सतह हल्का हरा होता है।
नर फूल की पंखुड़ी गुलाबी-बैंगनी रंग का होता है। केला का घौद (गुच्छा) बेलनाकार और लंबवत लटकते हुए , फल बड़े, 137 मिमी लम्बा 43 मिमी चौड़े और 50 मिमी मोटे, कोणीय, सीधे फल जिनमें लंबे डंठल होते हैं। फल हल्के हरे, पकने से पीले, गूदे मुलायम, सफेद, फलों के छिलके आसानी से छिल जाते हैं।
कोठिया के पके केले में पोषक तत्व की मात्र ; (प्रति 100 ग्राम फल में ) ऊर्जा 124 किलो कैलोरी, पानी 67.3 ग्राम, प्रोटीन 1.3 ग्राम, वसा 0.1 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट 29.6, फाइबर 0.9 ग्राम, राख 0.8 ग्राम, फॉस्फोरस 6 मिलीग्राम, लोहा (आयरन) 0.1 मिलीग्राम, सोडियम 6 मिलीग्राम, पोटाश 289 मिलीग्राम, कैरोटीन 42 मिलीग्राम, विटामिन ए 7 मिलीग्राम आरई, विटामिन बी-1 0.02 मिलीग्राम, विटामिन बी-2 0.02 मिलीग्राम, नियासिन 0.1 मिलीग्राम और विटामिन सी 12.1 मिलीग्राम होता है।
एक आम मान्यता के अनुसार कच्चे कोठिया केला से बने सब्जी या चोखा का प्रयोग करने से पाचन से सम्बंधित अधिकांश बीमारियाँ स्वतः ठीक हो जाती है। पेट की गंभीर समस्या से लेकर फैटी लीवर के इलाज में भी यह काफी सहायक हो रहा है। आज की सबसे बड़ी बीमारी डायबिटिक के इलाज हेतु भी लोग कोठिया कच्चे केले से बने विभिन्न व्यंजन खा रहे हैं। कच्चा कोठिया प्रजाति का केला खाने से शरीर को आयरन भी प्रचुर मात्रा में मिलता है।
कोठिया प्रजाति के केले की खेती में कम खाद एवं उर्वरक के साथ साथ कम पानी की वजह से किसान इसकी खेती के प्रति आकर्षित हो रहे है। हाल ही प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार ही यही कारण है कि देश में प्रसिद्ध चिनिया केले की जगह अब कोठिया केला ले रहा है। केले की खेती करने वाले किसानों की मानें तो हाल के दिनों में कोठिया केले की मांग 80 प्रतिशत तक बढ़ी है।
यही कारण है कि अब किसान चिनिया की जगह कोठिया केले की खेती को तरजीह दे रहे हैं। इस प्रजाति के केले के विभिन्न हिस्सों का भी उपयोग करके विभिन्न उत्पाद बनाए जा रहे है जैसे इसके आभासी तने से रेशा निकाल कर तरह तरह की रस्सियों, चटाई और बोरियां बनाई जा रही है। अभी तक इसकी खेती वैज्ञानिक ढंग से नहीं की जा रही है।
कोठिया केले की वैज्ञानिक खेती को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है की इसके उत्तक संवर्धन से तैयार पौधे खेती के लिए किसानों को उपलब्ध कराएं जाए। PC : डॉ. एसके सिंह प्रोफेसर सह मुख्य वैज्ञानिक(प्लांट पैथोलॉजी) एसोसिएट डायरेक्टर रीसर्च डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर बिहार
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