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तोरई, टिंडा एवं चप्पन कद्दू की सब्जी में लगने वाले रोगों को जैविक विधि से कैसे उपचार करें!

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krishijagriti5

तोरई, टिंडा एवं चप्पन कद्दू का उपयोग प्रमुख रूप से सब्जियों में लगभग पूरे भारत में बहुतायत रूप से किया जाता हैं। गर्मियों में बेल यानी कि कद्दूवर्गीय सब्जियों की खेती व्यापक रूप से की जाती हैं। कई बार इनकी फसलों को किट और बीमारियां लग जाती हैं। जिसकी वजह से फसलों को भारी नुकसान भी पहुंचता हैं। इनका प्रकोप फसल की गुणवत्ता और उत्पादकता को कम कर देता है। ऐसे में कद्दूवर्गीय सब्जियों के पौधों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

कद्दूवर्गीय सब्जियों में लगने वाले प्रमुख बीमारियां एवं उनके जैविक रोकथाम

पाउडरी मिल्डयू: इस रोग के लक्षण पत्तियों एवं तनों की सतहों पर सफेद या धुंधला रंग के धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं। कुछ दिनों के बाद ये धब्बे चूर्णयुक्त हो जाते हैं और सफेद चूर्णयुत पदार्थ अंत में समूचे पौधे की सतह को ढक लेता है। जिसके कारण फलों का आकार छोटा रह जाता हैं। 25 डिग्री सेंटीग्रेट के आसपास तापमान होने पर व अधिक आर्द्रता होने पर यह रोग तेजी से फैलता हैं।

अनर्थेकनोज: पानी युक्त धब्बे पत्तियों पर दिखाई देते हैं जो बाद में पीले रंग में बदल जाते हैं। ये धब्बे बाद में भूरे रंग व काले रंग के हो जाते हैं। ज्यादा संक्रमण होने पर फलों पर भी भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। 24 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान और अधिक आर्द्रता लंबे समय तक रहने पर फंगस वृद्धि करने लगता हैं।

डाउनी मिल्डयू: इस रोग से पत्तियों पर कोणीय धब्बे बनते हैं। ये पत्तियों के ऊपरी पृष्ट पर पीले रंग के होते। अधिक आर्द्रता होने पर पत्तियों की निचली सतह पर मृदुटोमिल कवक की वृद्धि दिखाई देती हैं। बरसात के मौसम के बाद 25 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक के तापमान पर यह रोग तेजी से फैलता हैं।

मोजैक: इससे पौधे की नई पत्तियों में छोटे, हल्के पीले धब्बों का विकास सामान्यतः शिराओं से शुरू होता हैं। पौधे विकृत तथा छोटे रह जाते हैं। कीटों के द्वारा फैलता है इसलिए कीटों का नियंत्रण करें। इसके लिए अच्छे बीजों का प्रयोग करें एवं रोगी पौधे को उखाड़ कर नष्ट कर दें।

इन रोगों का जैविक उपचार: बुवाई के समय 1 लीटर जी-बायो फास्फेट एडवांस को 150 या 300 किलोग्राम 12 माह पुरानी सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर प्रति एकड़ खेत में मिट्टी का उपचार करने के लिए छिड़काव करें। इन रोगों के लक्षण दिखने पर शुरुआती चरण में 1 लीटर जी-पोटाश को 150 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करें।

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