यह केला उत्पादन की एक नयी विधि है। इसमें उत्पादन बढ़ाने हेतु प्रति इकाई क्षेत्रफल केला के पौधों की संख्या बढ़ाने की सलाह दी जाती है। इस विधि में उत्पादन तो बढ़ता ही है, लेकिन खेती की लागत भी घटती है। उर्वरक एवं पानी का समुचित एवं सर्वोत्तम उपयोग हो जाता हैं।
राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय एवं देश के अन्य हिस्सों में किये गये प्रयोगों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि रोबस्टा एवं बसराई प्रजाति के पौधों की संख्या/हेक्टेयर बढ़ाकर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
केला की खेती की इस विधि का प्रयोग कई वर्षों से केला की खेती कर रहे है तो ज्यादा बेहतर होगा। पहली बार केला की खेती करने जा रहे केला उत्पादक किसानों को सलाह दी जा रही है की इस विधि का प्रयोग न करें क्योंकि इसमें कुशल दक्षता की आवश्यकता होती है।
तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयंबटूर में हुए प्रयोग के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि प्रकन्दों की संख्या एक स्थान पर एक न रखकर तीन रखकर तथा पौधों से पौधों तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 2×3 मीटर रख कर प्रति हेक्टेयर 5000 तक पौधा रखा जा सकता है।
इसमें नेत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश की 25 प्रतिशत मात्र परम्परागत रोपण की तुलना में बढ़ाना पड़ता है। इस व्यवस्था के फलस्वरूप उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि संभव है।
आजकल सघन रोपण विधि के अन्तर्गत कावेन्डीश समूह के केलों (ऊतक संवर्धन द्वारा तैयार पौधें) को जोड़ा पंक्ति पद्धति में लगाने की संस्तुति की जाती है। इस विधि में सिचाई टपक विधि द्वारा करने से सलाह दी जाती है। इसके कई फायदे है। केला की प्रथम फसल मात्रा 12 महीने में ली जा सकती है तथा उपज कम से कम 60 टन से ज्यादा मिल जाती है।
PC : डॉ. एसके सिंह प्रोफेसर सह मुख्य वैज्ञानिक(प्लांट पैथोलॉजी) एसोसिएट डायरेक्टर रीसर्च डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर बिहार
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