भारत में खरीफ फसल के सीजन में मूंगफली की खेती गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु समेत कई अन्य राज्यों में भी की जाती है। किसान मूंगफली की खेती करके अच्छा मुनाफा अर्जित कर लेते हैं। लेकिन क्या आपको पता है मूंगफली की फसल में कई तरह की फफूंद, जीवाणु और विषाणुजनित रोगों से जल्दी प्रभावित हो जाती है।
इसमें खाद-उर्वरक और सही फसल प्रबंधन अपनाकर क्वालिटी उपज लेने में आसानी होती है, लेकिन कीट-रोगों की समस्या अधिक उत्पादन के सपने पर पानी फेर देती है। आज हम आपको बताएंगे कृषि जागृति के इस पोस्ट में की कैसे इस फसल पर लगने वाले रोग व उपचार के बारे में जो आसानी से दूर कर सकते हैं।
टिक्का रोग: यह मूंगफली का एक मुख्य रोग है। यह सभी क्षेत्रों में आमतौर पर देखने को मिलता है। यह रोग एक कवक (सर्कोस्पोरा) द्वारा होता है। इसका प्रकोप फसल उगने के 40 दिनों बाद दिखाई देना शुरू होता है। इस रोग में पत्तियों की ऊपरी सतह पर हल्के मटमैले भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। पत्ती की निचली बाहरी त्वचा की कोशिकायें समाप्त होने लगती हैं। इसकी रोकथाम के लिये कीट का प्रकोप या इसके अंडे दिखते ही पौधों के तनों को काटकर जला देना चाहिये या जमीन में गड्ढे खोद कर गाड़ देना चाहिए।
माहूं कीट: माहूं कीट के कारण छोटे और भूरे रंग के कीट मूंगफली की पत्तियों के रस को चूसकर पौधे को नुकसान पहुंचाते हैं। इसके कारण पत्तियां पीली पड़कर मुरझा जाती है। इस कीट को मूंगफली की फसल पर फैलने से रोकना बहुत जरूरी है, इसके नियंत्रण के लिये इमिडाक्लोरपिड की 1 मि.ली. मात्रा को 1 लीटर पानी में घोलकर मूंगफली की फसल पर छिड़काव करना चाहिये।
गेरुई रोग: मूंगफली के गेरुई रोग से लगभग 14 से 32 प्रतिशत तक उत्पादन कम हो जाता है। यह रोग फफूंदी के द्वारा फैलता है। सर्व प्रथम रोग के लक्षण पत्तियों की निचली सतह पर ऊतकक्षयी धब्बों के रुप में दिखाई पड़ते हैं। इससे बचने के लिए रोगरहित प्रजातियों की बुवाई करें। मूंगफली के बीज को कवकनाशी थिरम या कैप्टान से ञ्च 3 से 4 ग्राम/किलोग्राम बीज को उपचार करें।
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