जयपुर राजस्थान प्रदेश के पश्चिमी जिलों में जाड़े की जकड़ किसी से छिपी नहीं है। एक ही रात में सबकुछ तबाही के कगार पर पहुंच जाता है। जाड़े के कहर से बचने के लिए रेगिस्तान में कितने ही जतन कर लो, पर फसल शिली मार ही जाती है। यही से शुरू होता है किसानों का रूदन और कर्ज का मर्ज। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। यह संभव हो रहा है लो-टनल से। यह वह टनल है जो जाड़े की जकड़ के बीच एक से दूसरे राज्य को जोड़ने और किसानों की समृद्धि बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
यहां हम बात कर रहे है लो-टनल की। यह नई तकनीक प्रदेश के साथ-साथ उत्तर भारत के सब्जी उत्पादक किसानों के लिए वरदान बनकर सामने आई है। इस नई तकनीक को और ज्यादा लाभकारी बनाने के लिए केंद्रीय शुष्क बागवानी अनुसंधान संस्थान सहित देश के दूसरे संस्थानों में अनुसंधान कार्य जारी है।
यही कारण है कि दौसा, करौली और जयपुर जिले तक सिमटा रहने वाला जायद सब्जी (कद्दू वर्गीय फसल) का उत्पादन अब रेगिस्तान अपने नाम करने लगा है। क्योंकि यहां जमीन भी सस्ते में उपलब्ध है। इसके चलते उत्तर प्रदेश, बिहार सहित दूसरे राज्यों के किसान सीकर, झुंझुनूं, बीकानेर, चुरू, हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर आदि जिलों का रुख करने लगे है। इस कारण इस तकनीक का तेजी से प्रसार हो रहा है। वही किसानों की आमदनी भी बढ़ रही है।
लो-टनल तकनीक को लेकर केंद्रीय शुष्क बागवानी अनुसंधान संस्थान, बीकानेर के फसल उत्पादन विभाग के प्रधान वैज्ञानिक डॉ धुरेंद्र सिंह का कहना है कि पश्चिमी जिलों में सब्जी फसलों का दायरा बढ़ाने में यह नई तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। इस संस्थान के द्वारा पश्चिमी जिलों में करवाएं गए एक सर्वे के मुताबिक लगभग 15 हजार हैक्टेयर क्षेत्र में इस नई तकनीक के दायरे में आ चुका है। उन्होंने बताया कि रबी खरीफ उत्पादन के बाद खाली रहने वाले खेत अब गर्मियों में भी हरे-भरे नजर आते है।
यह लो-टनल का ही कमाल है। उन्होंने बताया कि कम खर्च पर इस नई तकनीक से प्रति हैक्टेयर 3 से 4 लाख रुपए की आमदनी किसानों को आसानी से मिल जाती है।जबकि, परम्परागत फसलों के उत्पादन में किसान को 25 से 30 हजार रुपए प्रति एकड़ की आमदनी मिलती है। इस नई तकनीक पर उद्यानिकी विभाग के द्वारा किसानों को लागत का 75 प्रतिशत अनुदान देय है।
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