कुछ साल पहले तक खूबसूरत पीले बीजू आम हर जगह दिख जाते। पेड़ों से टपक कर भूमि पर गिरे इन रसीले आमों का स्वाद शहद से भी मीठा होता है। बच्चें जेठ की तपती दोपहरी में भी इस पेड़ के चक्कर लगाते भीरते थे। इस टपकते आम को हासिल करने के लिए एक दूसरे में होड़ लगा रहता। गांव के कई नौजवान और बुजुर्गों कई किलो बीजू बेहद आराम से खा जाते।
छोटे बीजू आम जिसमें गुठली की साइज बड़ी होती थी। रस और रेशो से भरपूर होता। बचपन की याद अब लोगों को तड़पाने लगी है। बीजू आम पर किसी का पहरा नहीं होता था। किसी के पेड़ से कोई भी व्यक्ति आसानी से आम चुनता और खाता। पेड़ मालिक इसे तोड़ने की जहमत भी नहीं उठाते। कारण था कि इसके फल बेहद छोटे और पेड़ बहुत ही बड़े होते थे।
तोड़ने को कोई साहसी चढ़ता भी तो कुछ ही मिनटों में चढ़ाई उसे कमजोर कर देती। दरअसल बीजू आम, आम के बीज यानी गुठलियों के द्वारा उत्पन्न किए गए पेड़ों से पाए जाते हैं। समय के साथ इसके पेड़ बेहद बड़े हो जाते हैं। आज के टिशु कल्चर और क्रॉस किए गए नर्सरी के आमों के विपरीत बीजू आम के फलन में बहुत सालों का वक्त लगता है।
इसके अलावा इसके पेड़ काफी जमीन भी घेरते हैं। कभी यह आम व्यवसायिक दृष्टिकोण पर खड़ा नहीं उतरा। हालांकि इस आम की लकड़ियां बेहद कामगार होती है। इसके चटनी और आचार का भी कोई जवाब नहीं होता। आज विरले ही कोई बीजू आम का पेड़ लगाया करता है।
पूर्वजों का भला हो जिनके लगाए पेड़ आज भी सही सलामत कुछ जगह दिख जाते हैं पर आज के दौर में कोई बीजू को लगाने की जहमत नहीं उठाता। ऐसा ही चलता रहा तो मीठे-पीले-रसीले आम भविष्य में गुमनाम हो जाएगा। जब-जब जेठ की दोपहरी बचपन को सताएगी तब-तब इन रसीले फल की याद आयेगी , पर अफसोस यह आम नहीं मिलेगा। श्रेय: लवकुश, आवाज एक पहल
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